हर साल ओडिशा के पुरी शहर में निकलने वाली जगन्नाथ रथ यात्रा न सिर्फ एक धार्मिक उत्सव है, बल्कि ये भारत की सांस्कृतिक विरासत, भक्ति और समर्पण का एक जीवंत प्रतीक भी बन चुकी है। लाखों की संख्या में श्रद्धालु इस यात्रा में शामिल होते हैं — चाहे वो दूर-दराज़ के गांवों से हों या विदेशों से।
इस यात्रा में भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलभद्र, और बहन सुभद्रा को भव्य रथों पर बिठाकर पुरी के जगन्नाथ मंदिर से गुंडिचा मंदिर तक ले जाया जाता है, जो लगभग 3 किलोमीटर दूर होता है। ये पूरा रास्ता भक्तों से भर जाता है, और “जय जगन्नाथ” के जयघोष से शहर गूंज उठता है।
सबसे खास बात ये है कि तीनों रथों को हर साल नई लकड़ी से बनाया जाता है, लेकिन उनका आकार, रंग और डिज़ाइन सदियों से एक जैसा ही होता है।
- भगवान जगन्नाथ का रथ सबसे बड़ा होता है, इसका नाम नंदीघोष है।
- बलभद्र के रथ को तालध्वज, और
- सुभद्रा के रथ को दर्पदलन कहा जाता है।
रथ खींचने की रस्म में हर कोई भाग ले सकता है — राजा से लेकर आम जनता तक। यहां कोई भेदभाव नहीं होता। यही वो पल होता है जब सब एक साथ खड़े होते हैं — धर्म, जाति या वर्ग के फर्क के बिना।
पुरी के राजा खुद सोने की झाड़ू लेकर रथों का मार्ग साफ़ करते हैं, जिसे ‘चेरा पहरना’ कहा जाता है। ये संकेत है कि ईश्वर के सामने हर कोई समान है।
जब भगवान गुंडिचा मंदिर पहुंच जाते हैं, तो कुछ दिन वहीं ठहरते हैं। फिर एक हफ्ते बाद ‘बाहुदा यात्रा’ में वे वापस लौटते हैं। वापसी के रास्ते में वे अपनी मौसी के घर रुकते हैं और वहां उन्हें एक खास मिठाई पोडा पीठा का भोग लगाया जाता है। मंदिर लौटने पर ‘सुनाबेशा’ होता है, जिसमें भगवान सोने के आभूषणों से सजे होते हैं।